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गन्ने की सिंचाई में जल का हो किफायती इस्तेमाल
Date: 15 Apr 2017
Source: Business Standard
Reporter: सुरिंदर सूद
News ID: 8568
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गन्ने की खेती में लगने वाले पानी की मात्रा पर गौर कीजिए। गन्ने की एक टन वजन वाली फसल को तैयार करने में करीब 250 टन पानी लगता है। दूसरे नजरिये से देखें तो 12 महीने से 18 महीने में तैयार होने वाली इस फसल में 180 से लेकर 250 सेंटीमीटर पानी की दरकार होती है। यह भारत में चार महीनों के मॉनसून सत्र में होने वाली औसतन 89 सेंटीमीटर बारिश के दोगुने से भी अधिक है। यह साल भर में होने वाली 120 सेंटीमीटर बारिश से भी काफी अधिक है।

गन्ने के खेत को उत्तर भारत के उपोष्ण कटिबंधीय इलाकों में पांच से सात बार सिंचाई की जरूरत होती है जबकि दक्षिण भारत की उष्ण कटिबंधीय जलवायु में 30 से 40 बार सिंचाई करनी पड़ती है। हालांकि अधिकतर किसान अपने खेतों की तय सीमा से अधिक बार सिंचाई करना पसंद करते हैं। देश भर में गन्ने की 95 फीसदी से भी अधिक खेती सिंचाई वाली भूमि में होती है।

 
इसका मतलब है कि गन्ने की खेती के लिए उस पानी से अधिक की जरूरत पड़ती है जो किसानों को बारिश से मिलता है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण की आवाज उठाने वाले संगठन देश के अधिकांश इलाकों में बढ़ रहे पानी के संकट के मद्देनजर गन्ने की खेती को लेकर चिंताएं जताने लगे हैं। इन पर्यावरण कार्यकर्ताओं का यहां तक कहना है कि गर्म और कम बारिश वाले इलाकों में गन्ने की खेती पर रोक लगा देनी चाहिए। 
 
हालांकि इस तरह का अनुरोध व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं नजर आता है। भारत विभिन्न कारणों से गन्ने की खेती के रकबे में कमी को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यह कृषि क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण औद्योगिक फसल है जिस पर देश भर के करीब 4.5 करोड़ लोगों की आजीविका आंशिक या पूरी तरह निर्भर करती है। गन्ने से चीनी के अलावा अल्कोहल, कागज, रसायन, पशु चारा और अन्य उत्पाद भी बनाए जाते हैं। कई दशकों में चीनी उद्योग का व्यापक विस्तार और विकास हुआ है जिसके चलते गन्ना एक अहम कृषि-औद्योगिक कच्चे माल के रूप में तब्दील हो चुका है। इसके अतिरिक्त अधिकांश भारतीयों को मीठा खाना काफी पसंद भी है। भारत में चीनी की सालाना मांग लगातार बढ़ती रही है और मौजूदा समय में इसके 2.4 करोड़ टन रहने का अनुमान है। घरेलू स्तर पर उत्पादन बढ़ाए बगैर इस लक्ष्य को हासिल कर पाना आसान नहीं है। यही वजह है कि गन्ने की खेती का रकबा लगातार बढ़ता चला गया है और पिछले 50 साल में यह करीब दोगुना हो गया है। 
 
गन्ने की खेती में पानी के अधिक इस्तेमाल की समस्या का समाधान तो इस बुनियादी प्राकृतिक संसाधन के किफायती उपयोग से ही तलाशा जा सकता है। सौभाग्य से अब गन्ने की खेती में पानी के इस्तेमाल को कम करने वाली तकनीकें भी आ गई हैं। इस दिशा में पहला कदम तो यह है कि गन्ने के खेतों को पानी से लबालब भर देने वाली सिंचाई की पुरानी परिपाटी को बंद कर दिया जाए। 
 
इसके स्थान पर लघु-सिंचाई पद्धति को अपनाया जा सकता है जिसमें छिड़काव करने और रिसाव सिंचाई वाली तकनीकें शामिल हैं। इन तकनीकों से पानी व्यर्थ नहीं जाता है और गन्ने के पौधे की जड़ तक पानी पहुंचाया जाता है। इससे पौधे की पानी की जरूरत को किफायती तरीके से पूरा कर दिया जाता है और पानी व्यर्थ होने की आशंका भी काफी कम हो जाती है। लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना शोध संस्थान के मुताबिक सिंचाई की इन आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से 30-40 फीसदी पानी की बचत की जा सकती है। इसके साथ ही पौधों की जड़ों तक पानी पहुंचने से फसल की पैदावार भी 20-30 फीसदी अधिक हो जाती है। 
 
गन्ने की खेती में पानी की खपत को कम करने का एक और तरीका तो यह है कि खेतों की सतह को थोड़ा ऊंचा कर पौधे लगाए जाएं। खेत में खाली पड़ी जमीन को टूटी पत्तियों और अन्य कृषि अवशिष्टों से पाट दिया जाए ताकि खेत की नमी देर तक बनी रहे। उठाई हुई सतह खेती प्रणाली में फसल को उभरी हुई सतह पर लगाया जाता है और उनकी सिंचाई के लिए हलों की नोक से बनी नली का इस्तेमाल किया जाता है। इस तकनीक से न केवल 25 से 35 फीसदी पानी की बचत होती है बल्कि बीज की जरूरत भी करीब 25 फीसदी घट जाती है।
हालांकि इन नए तरीकों के लिए शुरुआती दौर में बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत होती है, लिहाजा एक आम किसान के लिए इन्हें अपना पाना संभव नहीं है। 
 
गन्ना शोध संस्थान के निदेशक ए डी पाठक का मानना है कि गन्ने की फसल में पानी के सीमित इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने वाली तकनीकों को व्यापक पैमाने पर तभी अपनाया जाएगा जब सरकार की तरफ से उनकी खरीद पर भारी सब्सिडी दी जाए और तकनीकी मदद भी मुहैया कराई जाए। इस संदर्भ में गन्ने की खेती पर आश्रित चीनी उद्योग भी सरकार की कोशिशों के पूरक की भूमिका निभा सकता है। 
 
देश का सर्वाधिक चीनी उत्पादक राज्य महाराष्ट्र उन चुनिंदा राज्यों में एक है जो गन्ने की फसल में किफायती सिंचाई तकनीकों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके बावजूद गन्ने के कुल रकबे का बहुत छोटा सा हिस्सा ही इन तकनीकों की जद में आ पाया है। जरूरत इस बात की है कि सभी गन्ना उत्पादक इलाकों में पानी के  किफायती इस्तेमाल के लिए एक निर्देशित और परिणामोन्मुख कार्यक्रम चलाया जाए। अगर ऐसा नहीं होता है तो पानी का संकट जल्द ही गन्ने की खेती को खतरे में डाल सकता है। 
 
  

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