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गन्ने की खेती छोड़ रहे हैं किसान
Date: 01 Dec 2015
Source: नव भारत टाइम्स
Reporter: के.सी. त्यागी
News ID: 4995
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हाल में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में 47.50 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से गन्ना किसानों को सब्सिडी देने का फैसला किया गया। इसको इस तरह प्रचारित किया गया जैसे यह किसानों को राहत पहुंचाने का फैसला हो। लेकिन हकीकत यह है कि यह निर्णय विश्व व्यापार संगठन के दबाव में लिया गया है और इसका मकसद चीनी मिल मालिकों को लाभ पहुंचाना है। किसानों को इस राशि का जरा भी फायदा नहीं मिलने वाला। यह पूरी रकम गन्ने के 'उचित एवं लाभकारी मूल्य' का हिस्सा होगी। चीनी उद्योग विकास के कोष से इस राशि का भुगतान किया जाएगा।

 

इस बार चीनी मिलों ने लगभग दो हफ्ते की देरी से पेराई शुरू की है, जिसके चलते गन्ना किसानों को अपना गन्ना कोल्हू मालिकों को औने-पौने दाम पर बेचना पड़ा है। कोल्हू मालिक किसान को नगद पेमेंट करते हैं इसलिए मजबूरन किसान उन्हें सस्ते दाम पर गन्ना बेच रहे हैं। दूसरा कारण यह भी है कि पेराई में देरी होने के कारण फसल देर तक खड़ी रहती है, जिससे खेत खाली नहीं हो पाता है। खेत समय से खाली नहीं हुआ तो रबी की बुआई नहीं हो पाती और दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है। किसान की यह विवशता सरकारें और चीनी मिल मालिक बखूबी समझते हैं। पेराई में देरी इसीलिए की जाती है, ताकि मिलें औने-पौने दाम पर गन्ना खरीद सकें।


मिलों पर मेहरबानी

एसोचैम की एक रिपोर्ट बताती है कि किसान बढ़ते कर्ज, चीनी मिल मालिकों से लगभग 4700 करोड़ रुपये का पिछला भुगतान न होने और गन्ने का उचित मूल्य न मिलने के कारण दूसरी फसलों की ओर मुड़ रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान पेराई सत्र में 2.70 करोड़ टन चीनी उत्पादन की उम्मीद है, जबकि पिछले साल 2.83 करोड़ टन उत्पादन हुआ था। चीनी उत्पादन में गिरावट और आक्रामक चीनी निर्यात नीति के कारण अगले साल गर्मियों तक चीनी की घरेलू कीमतों पर दबाव बढ़ सकता है। ऐसा हुआ तो उपभोक्ता को दाल और खाद्य तेल के बाद चीनी भी महंगे दाम पर खरीदनी पड़ेगी।


सरकार ने मिल मालिकों के इस तर्क को तरजीह दी है कि चीनी उत्पादन में उनकी लागत 37 रुपये प्रति किलो आती है, मगर उन्हें बाजार में इसे 28-29 रुपये किलो के भाव से बेचना पड़ता है। मिल मालिकों का मुनाफा सुनिश्चित करने हेतु सरकार समय-समय पर कदम उठाती रही है, परंतु किसानों को लागत मूल्य देने से हमेशा परहेज किया है। हालिया प्रस्ताव के तहत इस वर्ष मिल मालिकों द्वारा उचित एवं लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी में केवल 182.50 रुपये ही किसानों को दिए जाने की योजना है। अब तक पूरा दाम मिल मालिकों द्वारा वहन किया जाता रहा है। केंद्र सरकार अपनी नई घोषणा के जरिये चीनी मिल मालिकों का बोझ साझा करने को तैयार दिखी है, लेकिन गन्ने के दाम बढ़ाकर किसानों को राहत देने को वह कतई राजी नहीं है। पिछले दो वर्षों से गन्ने का भाव सिर्फ 10-10 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बढ़ाया गया है जबकि चीनी मिलों को सरकार द्वारा एकमुश्त 47.50 रुपये प्रति क्विंटल की राहत दी जा रही है।


मार्च 2015 तक शुगर डिवेपलमेंट फंड से महाराष्ट्र् की 19 चीनी मिलों को केंद्र सरकार द्वारा 140 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान की जा चुकी है। घरेलू चीनी मिलों का मुनाफा सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा चीनी पर इंपोर्ट ड्यूटी 15 फीसदी से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दी गई, फिर इसे 40 फीसदी कर दिया गया। इंपोर्ट ड्यूटी ज्यादा होने के कारण बाहर से चीनी मंगाना भी कठिन हो गया। दूसरी तरफ चीनी का एक्सपोर्ट सस्ता रखने के सारे उपाय किए गए हैं। वर्ष 2014-15 के दौरान सरकार ने रॉ शुगर के निर्यात के लिए 4000 रुपये प्रति टन के हिसाब से एक्सपोर्ट सब्सिडी दी है। इस योजना के तहत कुल 14 लाख टन रॉ शुगर का निर्यात हुआ, यानी चीनी बाहर भेजने के लिए 560 करोड़ रुपये सरकार की जेब से गए।

 

इससे पहले वर्ष 2013-14 में भी सरकार द्वारा रॉ शुगर के निर्यात पर सब्सिडी का प्रबंध किया गया था। पिछली सरकार द्वारा भी चीनी मिल मालिकों को रियायत के रूप में एंट्री टैक्स तथा बिक्री टैक्स में छूट देकर लगभग 11 रुपये प्रति क्विंटल की वित्तीय सहायता प्रदान की गई थी। मौजूदा सरकार के अब तक के कार्यकाल में किसानों के हित में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है। किसानों को एमएसपी के साथ 50 फीसदी लाभकारी मूल्य देने के अपने चुनावी वादे से वह पहले ही मुकर चुकी है। वित्त मंत्री जीएसटी पर आम सहमति बनाने के लिए तमाम राजनैतिक दलों के दरवाजे खटखटा रहे हैं। उसी तर्ज पर एमएसपी का अपना वादा पूरा करने के लिए भी वे कुछ क्यों नहीं करते?

 

कमजोर पड़ती आवाज

सरकार को सूखाग्रस्त राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक तुरंत बुलानी चाहिए। 320 से अधिक जिले सूखे की लपेट में हैं। राहत प्रदान करने की प्रक्रिया लगभग ठप है। राज्य सरकारों की निष्क्रियता को दोषी बताकर केंद्र सरकार पल्ला झाड़ना चाहती है। किसान समर्थक संगठनों की क्षीण होती शक्ति तथा राजनैतिक दलों में किसान वर्गों का घटता प्रतिनिधत्व भी उनके वर्ग हितों की उपेक्षा का बड़ा कारण है। उत्तर भारत में कभी चौ. चरण सिंह का संगठन और बाद में भारतीय किसान यूनियन हर साल किसानों, खासकर गन्ना किसानों के मुद्दों पर संघर्ष छेड़ते थे। उनकी अनुपस्थिति से इन वर्गों की लड़ाई और कमजोर हुई है।              

 
  

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