करीब दो साल पहले चीनी को आंशिक रूप से विनियंत्रित किए जाने के बावजूद मिलों की हालत नहीं सुधरी है। मवाना शुगर्स के प्रवर्तक सिद्धार्थ श्रीराम ने दिलीप कुमार झा को बताया कि जब तक गन्ने की कीमतों को अंतिम उत्पाद कीमत से जोडऩे के रंगराजन समिति के फॉर्मूले को लागू नहीं किया जाता तब तक चीनी उद्योग की हालत नहीं सुधरेगी। साक्षात्कार के अंश: उत्तर प्रदेश में गन्ने की कीमतों को लेकर आपका क्या मानना है? रंगराजन समिति का फॉर्मूला स्वागत योग्य प्रस्ताव है, जिसमें चीनी से होने वाली आमदनी में 75 फीसदी हिस्सा किसानों और 25 फीसदी मिल मालिकों को देने की बात कही गई है। हालांकि राज्य परामर्शी कीमत (एसएपी) के रूप में गन्ने की कीमतें घोषित करने वाली उत्तर प्रदेश सरकार ने इस फॉर्मूले को स्वीकार नहीं किया है। भले ही जो भी कारण हों, लेकिन यह ऐसी स्थिति चाहती है, जिसमें वह चीनी की कीमतों की अनदेखी कर गन्ने की कीमतें तय कर सके। सरकार ने इस स्थिति को सुधारने के लिए कई कदम उठाए हैं। क्या इन उपायों से चीनी उद्योग को मदद मिलेगी? सरकार निर्यात के जरिये चीनी की कीमतों को बढ़ाने की कोशिश कर रही है। हालांकि यह इरादा अच्छा है, लेकिन डब्लूटीओ की बंदिशों की वजह से यह संभव नहीं होगा। अगर यह संभव हुआ तो क्या मिलों को निर्यात कीमत में होने वाले घाटे की भरपाई करने के लिए कहा जाएगा? सरकार राहत के उपाय बहुत देर से बहुत छोटे लेकर आती है। चीनी कंपनियां इस समस्या से कैसे बाहर निकल सकती हैं? ऊंची कीमत घोषित करने के बाद राज्य सरकार चुनावी वजह से कीमतें घटाने की इच्छुक नहीं है। यह किसानों को मिलने वाली कीमत नहीं घटा सकती है। इस स्थिति में गन्ने की कीमतों और चीनी कीमतों के बीच का अंतर कौन वहन करेगा? यह अंतर एक महीने पहले तक 30 फीसदी ऋणात्मक (करीब 6,000 रुपये प्रति टन) था। अगर सरकार सब्सिडी देना चाहती है तो उसे ऐसा करना चाहिए। यह उनका राजनीतिक कारोबार है। हालांकि उद्योग पर किसानों को चीनी कीमत की 75 फीसदी राशि देने की जिम्मेदारी होनी चाहिए। ज्यादातर चीनी कंपनियों की बैलेंस शीट की हालत खराब है। जो कंपनियां मजबूत हैं या जिनके पास बिक्री के लिए एथेनॉल है, वे बेहतर स्थिति में हैं। अन्य जो पुरानी मिलों का संचालन कर रही हैं और जिनकी उत्पादन लागत ऊंची है उनकी हालत खराब है। आपके मुताबिक इसका क्या हल है? तीन किस्तों में गन्ना किसानों को भुगतान का रंगराजन समिति का फॉर्मूला कारगर रहेगा। मिल मालिकों को करीब 25 फीसदी राशि की पहली किस्त किसानों गन्ना खरीदने के 14 दिन के भीतर करना होगा। 40 फीसदी राशि का भुगतान तीन महीने बाद किया जाए, जब उस चीनी में से कुछ बिक जाए और शेष का भुगतान चीनी वर्ष के अंत में किया जाए। इससे मिल मालिकों की ब्याज लागत घटेगी क्योंकि हमें बैंकों से ऋण नहीं लेना होगा और बैंक वर्तमान परिस्थितियों में ऋण देने के इच्छुक नहीं हैं। चीनी की ऊंची कीमत वास्तव में किसानों के लिए ज्यादा गन्ना उगाने का संकेत है। कम कीमत से गन्ने और अन्य फसलों की बीच अर्थशास्त्र संतुलित होगा। क्या किसानों और मिलों दोनों के लिए बेहतर समाधान संभव है?
दो साल तक चीनी की कीमतें ऊंची रहने पर कंपनियों की बैलेंस शीट ठीक स्थिति में आ पाएगी, इसलिए सरकार को इस सीजन के दो साल बाद से रंजराजन समिति की सिफारिशें लागू करनी चाहिए। किसान को यह तय करने के लिए दो साल मिल जाएंगे कि उसे गन्ना उगाना है या अन्य फसल। अगले दो वर्षों में केंद्र और राज्य सरकारें संभावित घाटे की भरपाई कर सकती हैं।