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News


चीनी मिलों का बढ़ता ग़म, टूटता दम
Date: 19 Mar 2015
Source: Business Standard Hindi
Reporter: Bhupesh Bhandari and Sahil Makkar
News ID: 4119
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उत्तर प्रदेश चीनी उद्योग के लिए मशहूर है लेकिन यहां इस उद्योग की हालत बहुत खस्ता है। एक ओर जहां चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का करोड़ों रुपये का बकाया है वहीं बैंक मिलों को कर्ज देने के लिए इच्छुक नहीं नजर आ रहे भूपेश भन्डारी और साहिल मक्कड़

उत्तर प्रदेश के एक बड़े चीनी कारोबारी ने हाल ही में दिल्ली के उपनगरीय इलाके के एक बड़े अस्पताल में भर्ती होने का फैसला किया। उस कारोबारी के नाम पर वारंट जारी हो चुका था और उत्तर प्रदेश पुलिस के जवान उसके फार्म हाउस और कार्यालय में उसे तलाश रहे थे। गिरफ्तारी से बचने के लिए उसे रात घर से बाहर बितानी थी और शायद उसे लगा कि अस्पताल इसके लिए बेहतर जगह होगी। लेकिन जैसे ही वह अस्पताल पहुंचा, यह देखकर चकित रह गया कि राज्य पुलिस के जवान पूरे अस्पताल परिसर में मौजूद थे। दरअसल कुछ ही देर पहले एक बड़े राजनेता उस अस्पताल में भर्ती हुए थे। बस फिर क्या था, चीनी कारोबारी वहां से तुरंत निकल गया।
उत्तर प्रदेश का चीनी उद्योग डर की जकड़ में है। राज्य सरकार के आदेश के चलते गन्ने की कीमत बढ़ी हुई है जबकि चीनी की कीमतों में लगातार गिरावट आ रही है। चीनी मिलों पर किसानों का भारी भरकम बकाया है। जाहिर सी बात है कि किसानों के सब्र का बांध टूट रहा है। कुछ मिलों का आरोप है कि उनके कर्मचारियों और परिजनों के साथ किसानों ने बदतमीजी भी की है। चूंकि चीनी और गन्ना दोनों आवश्यक जिंस अधिनियम के अधीन आते हैं इसलिए राज्य सरकार के पास अधिकार है कि वह बकाया भुगतान न करने वालों के विरुद्घ आपराधिक मामले की शुरुआत कर सके। इसमें गिरफ्तारी भी संभव है। इंजीनियर और टेक्रीशियन मिलों को छोड़कर जा रहे हैं। हालात इतने बुरे हैं कि मिलों को ऐसे कर्मचारी खोजने तक में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है जो किसानों के भुगतान के लिए जिम्मेदार होता है। मिलों के निदेशक बोर्ड में शामिल होने से डर रहे हैं। मवाना शुगर्स नामक एक कंपनी जिसके पास उत्तर प्रदेश में तीन मिलें हैं, के अधिकांश निदेशक छोड़कर चले गए हैं। पिछले दिनों मवाना शुगर्स ने राज्य सरकार को सूचित किया कि प्रशिक्षित और अनुभवी कर्मचारियों के अभाव में वह आगे कंपनी को चलाने में सक्षम नहीं हैं। कंपनी ने पत्र में लिखा कि अब उसके पास कोई निदेशक या वरिष्ठï अधिकारी काम नहीं करना चाहता है क्योंकि वे सभी बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। यहां पर जोखिम एकदम साफ नजर आ रहा है। मिलें अपनी मर्जी से बंद नहीं हो सकती हैं। वे केवल तभी बंद हो सकती हैं जब जिला मजिस्ट्रेट उनको ऐसा करने की अनुमति दे। इस कानून का अतिक्रमण आपराधिक मामले को न्योता दे सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने मवाना शुगर्स को कहा कि उसका काम अवैध है और ऐसा करने से किसानों के हितों को नुकसान पहुंचेगा। उत्तर प्रदेश के गन्ना आयुक्त एस सी शर्मा के मुताबिक कंपनी ने अपना काम दोबारा शुरू करने की इजाजत दे दी है।
राजनीतिक दलों ने इससे भी लाभ हासिल करने का मन बना लिया है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने गुमराह मिल मालिकों के खिलाफ कदम उठाने की मांग करते हुए विधानसभा में राज्य सरकार से कहा कि ऐसे मिल मालिकों को तत्काल पुलिस हिरासत में ले लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि जेल में जब मच्छर उन पर हमला करेंगे तो उनकी पत्नियां पैसे लेकर तत्काल आएंगी! गत वर्ष 5 सितंबर को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मिलों से कहा था कि वे अपने चीनी के स्टॉक की बिक्री करें और वर्ष 2013-14 के बकाया भुगतान को पूरा करें। उस वक्त यह राशि करीब 4,600 करोड़ रुपये थी। मिलें ऐसा करने में चूक गईं और तब राष्टï्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वी एम सिंह ने मिलों पर न्यायिक अवमानना का आरोप लगाया। 25 फरवरी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जिलाधिकारियों को आदेश दिया कि वे किसानों को भुगतान में चूक करने वाली मिलों के खिलाफ सख्त कदम उठाएं। तीन कंपनियों, मवाना शुगर्स, मोदी इंडस्ट्रीज और सिंभावली शुगर्स के पास अभी भी किसानों के 430 करोड़ रुपये बकाया हैं।
सैद्घांतिक तौर पर देखा जाए तो 75 करोड़ रुपये से कम राशि खर्च कर चार बड़ी कंपनियों अवध शुगर मिल्स (बाजार पूंजीकरण 46 करोड़ रुपये), अपर गंगा शुगर (38 करोड़ रुपये), मवाना शुगर्स (33 करोड़ रुपये) और  सिंभावली शुगर्स (32 करोड़ रुपये) का अधिग्रहण किया जा सकता है और इस तरह आप देश के चीनी उद्योग के शहंशाह बन सकते हैं।
चीनी का भंडार भले ही बेहद कम स्तर पर आ गया हो लेकिन बाजार में खरीदार भी नहीं हैं। चीनी उद्योग की हालत बहुत खराब है। सिंभावली शुगर्स के प्रबंध निदेशक गुरसिमरन मान कहते हैं कि आप इस उद्योग से बाहर तभी हो सकते हैं जब कोई अन्य व्यक्ति यहां आने की मंशा रखता हो। एक मिल मालिक कहते हैं कि वह अपनी कंपनी एक रुपये में बेचने को तैयार हैं। वेव इंडस्ट्रीज जिसने कुछ साल पहले प्रदेश सरकार से एक खस्ताहाल कंपनी खरीदी थी, अब उसे वापस करने की पेशकश कर रही है। इस बिक्री को अदालत में चुनौती मिली है और अनियमितता के आरोप हैं। ऐसे में कंपनी न तो निवेश कर पा रही है और न ही किसी तरह आधुनिकीकरण किया जा रहा है। इन सब कारणों के चलते ही कंपनी करीब 300 करोड़ रुपये के नुकसान में है।
इस दिक्कत की बड़ी वजह चीनी की कीमतों में गिरावट है। एक माह पहले के 31 रुपये प्रति किलो से घटकर अब चीनी की कीमत 25 रुपये प्रति किलो हो गई है। ऐसा गत वर्ष गन्ने की जोरदार फसल की वजह से हुआ है। मिलों का कहना है कि इस कीमत पर वे प्रति क्विंटल गन्ने के लिए 195 रुपये से अधिक का भुगतान नहीं कर सकतीं। जबकि राज्य सरकार ने प्रति क्विंटल गन्ने के लिए 280 रुपये मूल्य निर्धारित किया है। इसमें से 240 रुपये का भुगतान तत्काल करना होता है जबकि शेष 40 रुपये कुछ महीने बाद देने होते हैं। राज्य सरकार ने चीनी कीमतों के 31 रुपये प्रति किलो से कम होने पर प्रति क्विंटल 40 रुपये की सब्सिडी देने की बात कही थी। अब तक केवल 11.40 रुपये की सब्सिडी दी गई है। संभव है आगे और सब्सिडी दी जाए। उत्तर प्रदेश ने वर्ष 2015-16 के बजट में गन्ना सब्सिडी के लिए 1,100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। क्या इतना ही पर्याप्त होगा? वर्ष 2015-16 के पेराई सत्र (आमतौर पर अक्टूबर से अप्रैल) के लिए गन्ने का बकाया 240 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से 6,051 करोड़ रुपये आंका गया है। 280 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से देखें तो बकाया 8,380 करोड़ रुपये है। चीनी उद्योग लंबे समय से राज्य सरकार से यह मांग कर रही है कि चीनी और गन्ने की कीमतों को जोड़ दिया जाए। इससे यह होगा कि चीनी जितनी महंगी होगी गन्ने की किसानों को उतनी ही ज्यादा कीमत मिलेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने इस सुझाव पर कान नहीं दिया। हालांकि महाराष्टï्र व कर्नाटक में इस तरीके को अपना लिया गया।
बैंकों ने भी उद्योग जगत की अनदेखी शुरू कर दी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सितंबर के अपने आदेश में कहा कि किसानों का मिलों के चीनी भंडार पर पहला अधिकार है। उनके बकाये के भुगतान के बाद ही बैंकों का नंबर आएगा। मिलों को अब चीनी की बिक्री से हासिल होने वाली पूरी राशि एक खास खाते में जमा करनी होती है इसमें से 85 फीसदी राशि जिलाधिकारी के निरीक्षण में किसानों के पास जाती है जबकि केवल 15 फीसदी ही ऋणदाता बैंकों और मरम्मत तथा कर्मचारियों के वेतन भत्ते में खर्च की जाती है। हालात की गंभीरता को समझते हुए भारतीय स्टेट बैंक की अध्यक्ष अरुंधती भट्टïाचार्य और पंजाब नैशनल बैंक के प्रमुख के आर कामत ने उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव आलोक रंजन को लिखा कि राज्य को गन्ना कीमतों को तार्किक बनाना चाहिए वरना चीनी मिलों को दिया जाने वाला कर्ज फंसे हुए कर्ज में तब्दील हो जाएगा। भट्टïाचार्य ने अपने पत्र में लिखा कि जब तक राज्य सरकार चीनी उद्योग को वित्तीय रूप से व्यवहार्य नहीं बना देती है तब तक बैंक आगे प्रदेश के चीनी उद्योग को किसी तरह की मदद नहीं दे पाएगा। राज्य सरकार ने उनके सुझाव पर ध्यान नहीं दिया। आलोक रंजन ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय को लिखा कि वह बैंकों को यह बता दें कि राज्य के आंतरिक नीतिगत मामलों में कोई भी हस्तक्षेप सही नहीं है। यह भी कहा गया कि चीनी उद्योग का संबंध लाखों किसानों से है और ऐसी बातें उन्हें उत्तेजित कर सकती हैं। मिलों के मुताबिक बैंकों से कार्यशील पूंजी नहीं मिल रही इसलिए उनको किसानों को भुगतान करने में दिक्कत हो रही है। गंगा राम (60 साल) बैलगाडिय़ों, टै्रक्टर ट्रॉलियों और ट्रकों की लंबी कतार में शामिल हैं। इन पर गन्ना लदा हुआ है जिसकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सिंभावली मिल में पेराई होनी  है। अगले कुछ घंटों में उनके पूरे माल की पेराई हो जाएगी लेकिन उनको नहीं पता कि दैनिक जरूरतें कैसे पूरी की जाएं? ऐसा इसलिए क्योंकि उनको न तो पिछले वर्ष का पूरा बकाया मिल सका है और न ही इस वर्ष का। इन वजहों से वह कर्ज में फंस गए हैं। पास के लाडपुर गांव में राम के पास पांच एकड़ भूमि है और उन पर 4 लाख रुपये का कर्ज है। जबकि चीनी मिलों पर उनका 3.5 लाख रुपये बकाया है।
राम रोते हुए कहते हैं, 'मैंने अपने पोतों की स्कूल की फीस भी नहीं चुकाई है। परिवार के सदस्यों की दवा का खर्च तो दूर की बात है।' भुगतान का यह संकट कई और तरीकों से नजर आ रहा है। अनेक किसानों ने अपने परिवारों में शादियां टाल दी हैं। कंपनियों का कहना है कि गन्ना उत्पादन वाले क्षेत्र में ट्रैक्टरों, मोटरसाइकिल, टेलीविजन आदि की बिक्री में कमी आई है।
चूंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश राजनीतिक रूप से संवेदनशील है और वहां सांप्रदायिक स्तर पर भी अंतर देखा जा सकता है इसलिए प्रशासन क्षेत्र से होने वाली शिकायतों को हल्के में नहीं ले पाता। मवाना शुगर्स से जुड़े मामले को देख रहे नौकरशाह डी पी सिंह कहते हैं कि उनके अधिकारियों ने कंपनी के शीर्ष अधिकारियों के विरुद्घ चार आपराधिक मामले दर्ज किए। 8 मार्च को दर्ज की गई प्राथमिकी का बिज़नेस स्टैंडर्ड ने भी अवलोकन किया जिसके मुताबिक किसानों के धन का दुरुपयोग किया जा रहा है और उनके कृत्य की वजह से किसानों का आर्थिक शोषण हो रहा है। इस बात ने किसानों के मन में निराशा पैदा कर दी है और वे लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बात का जिले में कानून व्यवस्था की स्थिति पर बुरा असर पड़ रहा है। राज्य प्रशासन ने कंपनी की 40 हेक्टेयर भूमि को अटैच करने की प्रक्रिया आरंभ की साथ ही चीनी और राब के भंडार को भी। यह इसलिए किया गया ताकि वर्ष 2013-14 के 240 करोड़ रुपये के बकाया का भुगतान किया जा सके। कनिष्ठï राजस्व अधिकारी राकेश कुमार त्यागी कहते हैं कि कंपनी के गोदामों को सील कर दिया गया और उनकी चल अचल संपत्ति की नीलामी करने का फैसला किया गया है। इससे हासिल होने वाली राशि से पहले किसानों का बकाया चुकाया जाएगा और उसके बाद बैंकों का। लेकिन त्यागी के सहकर्मियों समेत अनेक लोगों का मानना है कि खरीदार न होने के कारण यह पूरी संपत्ति बिक ही नहीं पाएगी।
किसानों का धैर्य समाप्त हो रहा है। पिछले महीने पुलिस ने दो किसानों को एक चीनी मिल के परिसर में हो हल्ला करने के लिए गिरफ्तार कर लिया था। फैक्टरी के बाहर ओर अन्य जगहों पर अनेक किसान पिछले दो महीने से अपने गन्ने के बकाया के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। मवाना के खटकी गांव के किसान टीकम सिंह कहते हैं कि बकाये के भुगतान को लेकर मिलों और उनके बीच कोई संवाद नहीं है। उनको बताया गया है कि चीनी कीमतों में गिरावट के कारण मिलें भुगतान करने में नाकाम हैं। वह सवाल  उठाते हैं कि अगर अन्य मिलें भुगतान कर सकती हैं तो मवाना शुगर्स क्यों नहीं? किशनपुर बिराना गांव के विजय पाल सिंह को शक है कि पैसे का दूसरी जगह इस्तेमाल किए जाने के कारण ऐसा हो रहा है।
उत्तर प्रदेश में करीब 5 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए गन्ने पर निर्भर हैं। यह बात इसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील बनाती है। लखनऊ में कुछ लोगों को लगता है कि केंद्र की भाजपा सरकार चाहती है कि यह संकट वर्ष 2017 तक बरकरार रहे क्योंकि उस समय राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। यह सच है कि केंद्र सरकार ने 14 लाख टन कच्ची चीनी के निर्यात के लिए पांच महीने इंतजार कराके कोई अच्छा काम नहीं किया। इस अवधि में अंतरराष्टï्रीय बाजार में चीनी कीमतें 20 फीसदी तक गिर गई हैं। जाहिर है इसका लाभ घरेलू चीनी कीमतों को नहीं मिलने वाला। अब चीनी उद्योग चाहता है कि सरकार सफेद चीनी के निर्यात की भी मंजूरी दे दे।
गन्ने की बढ़ी कीमतों का राजनीतिक लाभ इतना ज्यादा है कि सरकार गन्ने और चीनी कीमतों को जोड़ नहीं रही। लेकिन इस बात के कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि गन्ने की बढ़ी हुई कीमत वोट दिलाने में मदद करती है। मायावती वर्ष 2007 से 2012 तक राज्य की मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने गन्ने की कीमतों में भारी बढ़ोतरी की थी लेकिन इसके बावजूद उनको वर्ष 2012 के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। समाजवादी पार्टी की मौजूदा सरकार ने कीमतों को ऊंचा रखा लेकिन उसे भी लोकसभा चुनाव में भाजपा के हाथों शिकस्त खानी पड़ी। इन तमाम समस्याओं के बीच किसान अभी भी गन्ने की खेती कर रहे हैं। हापुड़ जिले के किसान संसार पाल कहते हैं कि उनके पास गन्ना उगाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है क्योंकि यही वह फसल है जो ओला और बारिश को झेल सकती है। अन्य लोगों का माना है कि बकाया अटकने के बावजूद गन्ने पर प्रतिफल गेहूं, चावल, आलू आदि अन्य फसलों की तुलना में काफी अधिक है। यही आकर्षण किसानों को बाद में भुगतान के बावजूद गन्ने की खेती से जोड़े रखता है। प्रदेश में चीनी उद्योग का दम फूल रहा है लेकिन कुछ दिन पहले राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव 'मेक इन उत्तर प्रदेश' का नारा देने से नहीं चूके।

(आलेख में वीरेंद्र सिंह रावत का भी योगदान)

 
  

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