कुछ ही दिनों में केंद्र सरकार अपने 100 दिन पूरे करने का जश्न मना रही होगी। तमाम विश्लेषक अपनी तरह से समीक्षा में लग जाएंगे, परंतु अब तक के कार्यकाल में एनडीए सरकार ने अपनी नीति से आने वाले खराब दिनों की तस्वीर दिखाकर किसानों को डराने का ही काम किया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण नई सरकार द्वारा किए गए समर्थन मूल्य की घोषणा है। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणापत्र में भी उल्लेख किया गया था कि सरकार बनते ही लागत से 50 फीसदी अधिक समर्थन मूल्य की घोषणा की जाएगी। मगर सत्ता में आने के बाद उसने यूपीए सरकार द्वारा तय किए गए फॉर्मूले के आधार पर ही समर्थन मूल्यों की घोषणा की। इसी हफ्ते खाद्य मंत्रालय से घोषणा हुई कि चीनी पर आयात शुल्क 15 प्रतिशत से बढाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया है। आयात शुल्क बढ़ाने के पीछे सरकार की दलील है कि इससे चीनी मिलों का घाटा कम होगा और किसानों के बकाये का भुगतान होगा। मगर उसने यह नहीं सोचा कि किसानों के बकाये के भुगतान के नाम पर उसने जो 6,600 करोड़ रुपये का कर्जमुक्त पैकेज दिया था, उसका लाभ किसानों को मिला भी है या नहीं।
(लेखक राज्य सभा सांसद हैं) अभी चीनी मिलों पर लगभग 6,800 करोड़ रुपया बकाया है। इसमें से लगभग 5,000 करोड़ रुपया, तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की मिलों को देना है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश की मिलों को अपना स्टॉक बेचकर किसानों का भुगतान करने का निर्देश दिया था, परंतु उस पर भी अभी तक अमल नहीं हुआ है। आश्चर्य है कि केंद्र सरकार चीनी मिल मालिकों की मांग पर तुरंत कार्रवाई करती है, जबकि किसानों की मांगों पर वह उदासीन बनी हुई है। जहां एक ओर चीनी पर आयात शुल्क 10 प्रतिशत बढ़ाया जा रहा है, वहीं कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा गन्ने का एफआरपी मात्र 10 रुपये बढ़ाने की सिफारिश की गई है। इससे चीनी वर्ष 2015-16 (अक्तूबर से सितंबर) के लिए गन्ने का एफआरपी 230 रुपये प्रति क्विंटल हो जाएगा। सवाल यह है कि जब देश में प्रति वर्ष सालाना जरूरत से 25 लाख टन चीनी का अधिक उत्पादन होता है, तो फिर सस्ती चीनी बाहर से आयात करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है। असल में, सरकार विदेशों से रॉ शुगर आयात करती है, जिसे प्रोसेस करके निर्यात किया जाता है। यह काम मिलें करती हैं, जिसमें काफी समय लगता है। इस बीच मुनाफाखोर आयात की हुई चीनी सस्ते दामों में बाजार में बेच देते हैं। आयात शुल्क बढ़ाने से आयात होने वाली चीनी महंगी हो जाएगी, तब मजबूरी में देसी चीनी को प्रोसेस करके निर्यात करना पड़ेगा, जिससे चीनी मीलों को ही लाभ होगा। ऐसे में, जब चीनी मिलें अपने उत्पादन लागत के आधार पर मूल्य तय करती हैं, तो किसानों का समर्थन मूल्य लागत पर तय क्यों नहीं होता? किसानों के अनुसार, उनकी लागत 350 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि डीजल, कीटनाशक, बीज, खाद इत्यादि सबके दामों में भारी इजाफा हो रहा है। हालांकि बकाया पैसों के भुगतान एवं उचित मूल्य के लिए सारे देश के लगभग पांच करोड़ किसान आंदोलन कर रहे हैं। कई जगह वे पुलिस ज्यादती के शिकार भी हुए हैं। मगर न्याय मिला है, मिल मालिकों को। गन्ना उत्पादक तो प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।