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जरूरत से ज्यादा गन्ने का उत्पादन
Date: 25 Sep 2018
Source: Dainik Jagran
Reporter: Dr. Bharat Jhunjhunwala
News ID: 34572
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गन्ना किसान इस समय दो समस्याओं से जूझ रहे हैं। एक तरफ उन्हें गन्ने का भुगतान नहीं मिल रहा है। मिल रहा है तो वह भी देरी से। वहीं भूजल स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। इससे उत्पादन का खर्च भी बढ़ रहा है। किसानों को समय से भुगतान न मिलने का मुख्य कारण यह है कि गन्ने का दाम सरकार द्वारा निर्धारित किया जाता है जबकि चीनी मिलों को चीनी बाजार भाव पर बेचनी पड़ती है। वर्तमान में बाजार भाव पर गन्ने का यह ऊंचा दाम अदा नहीं किया जा सकता है। बिल्कुल वैसे जैसे गृहणी को कहा जाए कि अच्छी गुणवत्ता का आटा लाए, लेकिन उसका बजट न बढ़ाया जाए। ऐसे में समस्या पैदा हो जाती है। गन्ने का ऊंचा दाम होने से किसानों को अधिक लाभ मिल रहा है। इसीलिए किसान गन्ने का उत्पादन बढ़ा रहे हैं जबकि चीनी मिलें उससे उत्पादित चीनी को बेचने में असमर्थ हैं। चीनी मिलों को घाटा हो रहा है।

फिलहाल गन्ने का दाम लगभग 2,800 रुपये प्रति क्विंटल है। वहीं अमेरिका में इसका दाम 2,200 रुपये प्रति क्विंटल है। विश्व बाजार में चीनी का दाम आज लगभग 22 रुपये प्रति किलो है जबकि भारत में यह लगभग 35 रुपये प्रति किलो है। इससे अंदाजा लगता है कि भुगतान की समस्या मूलत: गन्ने के ऊंचे दाम निर्धारित किए जाने के कारण हैं।

इस समस्या का एक हल यह हो सकता है कि चीनी के अधिक उत्पादन का निर्यात कर दिया जाए, परंतु यह भी कठिन है, क्योंकि विश्व बाजार में वर्तमान में चीनी का दाम लगभग 22 रुपये प्रति किलो है जबकि भारत में 35 रुपये प्रति किलो। इसीलिए भारत में उत्पादित चीनी को बेचने के लिए सरकार को भारी मात्रा में निर्यात सब्सिडी देनी होगी। इसमें विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ के नियम आड़े आते हैं और साथ ही साथ सरकार के ऊपर खर्च का बोझ भी पड़ेगा। सरकार पहले ïउर्वरक तथा बिजली पर सब्सिडी देकर गन्ने का उत्पादन बढ़ा रही है और फिर उस बढ़े हुए उत्पादन पर निर्यात सब्सिडी देकर उसका निष्पादन कर रही है। यह उसी प्रकार हुआ कि जैसे आप आलू का एक कट्टा बाजार से खरीद लाएं और फिर कुली पैसे देकर कहें कि उसे कूड़ेदान में फेंक दे। इस प्रकार की दोहरी मार सरकार पर पड़ रही है तो निर्यात का रास्ता सफल नहीं होगा।

 

दूसरा संभावित हल है कि गन्ने से चीनी बनाने के स्थान पर पेट्रोल बना लिया जाए। गन्ने से एथनॉल नाम का उत्पाद बनता है जिसे कार में पेट्रोल के स्थान पर डाला जा सकता है। ब्राजील ने इस नीति का बहुत सफल उपयोग किया है। वह गन्ने का उत्पादन लगातार बढ़ा रहा है। विश्व बाजार में जब पेट्रोल महंगा होता है तो ब्राजील गन्ने का उपयोग एथनॉल के उत्पादन के लिए करता है और चीनी का निर्यात कम कर देता है। इसके विपरीत जब विश्व बाजार में चीनी का दाम अधिक होता है तो एथनॉल का उत्पादन कम करके चीनी का उत्पादन बढ़ाता है और उस चीनी को निर्यात करता है। भारत सरकार भी ब्राजील की नीति को अपनाना चाह रही है।

सरकार का प्रयास है कि देश में एथनॉल का उत्पादन बढ़ाया जाए जिससे आयातित तेल पर हमारी निर्भरता भी कम हो जाए और चीनी के अधिक उत्पादन की समस्या से भी मुक्ति मिले। गन्ने का उपयोग जब एथनॉल बनाने के लिए होगा तो चीनी का उत्पादन कम किया जा सकेगा। इस नीति में संकट पानी का है। भारत में ब्राजील की तुलना में पानी की उपलब्धता बहुत कम है। ब्राजील में प्रति वर्ग किलोमीटर दायरे में केवल 33 लोग रहते हैं जबकि भारत में 416 लोग। ब्राजील में औसत वार्षिक वर्षा 1250 मिलीमीटर होती है जबकि भारत में 500 मिलीमीटर। इन दोनों आंकड़ों का सम्मिलित प्रभाव यह है कि ब्राजील में भारत की तुलना में प्रति व्यक्ति तीस गुना पानी अधिक उपलब्ध है।

जब ब्राजील गन्ने का उत्पादन अधिक करता है तो वहां पानी की समस्या उत्पन्न नहीं होती है, क्योंकि वहां जनसंख्या कम है और वर्षा अधिक है। पानी की खपत भी कम है। हमारे यहां गन्ने का उत्पादन बढ़ाकर उससे एथनॉल बनाने का सीधा परिणाम यह होगा कि वर्तमान में भूमिगत जल का जो स्तर गिर रहा है वह और तेजी से घटेगा। अपने देश में भूमिगत जलस्तर गिरने से दो समस्याएं पैदा होंगी। पहला यह कि गहराई से पानी को निकालने में बिजली भी अधिक खर्च करनी होगा। फिलहाल यही देखने को मिल रहा है कि किसानों को हर दूसरे तीसरे वर्ष अपने ट्यूबवेल की गहराई को बढ़ाना पड़ रहा है। वे सदियों से जमा भूजल का दोहन करके ही गन्ने का उत्पादन कर रहे हैं। बिल्कुल वैसे जैसे हम बैंक में रखे फिक्स डिपॉजिट को तोड़कर अपनी जीविका चलाएं। अंतत: वह फिक्स डिपॉजिट की रकम भी खत्म हो जाएगी और हमारे समक्ष एक संकट आ जाएगा।

इसी तरह यदि सदियों से संचित भूमिगत जल को हम गन्ना उत्पादन के लिए उपयोग करते रहेंगे तो वह भी जल्द ही खत्म हो जाएगा। तब देश के सामने खाद्य सुरक्षा का भी संकट उत्पन्न हो जाएगा। गन्ने का उत्पादन करके हम उसकी खपत एथनॉल बनाने मे कर लेंगे, परंतु देश के पास गेहूं और चावल उत्पादन करने के लिए पानी नहीं रह जाएगा। इसलिए एथनॉल बनाने के लिये गन्ने का उत्पादन भी बहुत कारगर विकल्प नहीं मालूम पड़ता।

समस्या का तीसरा हल यह सुझाया जा रहा है कि भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ जरूरत से ज्यादा चीनी के उत्पादन को खरीद कर बफर स्टॉक बना ले। भारत में चीनी की सालाना खपत 2.6 करोड़ टन है। इसके लिए एक करोड़ टन का बफर स्टॉक हमारे पास पहले से ही उपलब्ध है और इस वर्ष 3.6 करोड़ टन चीनी के उत्पादन होने का अनुमान है। इसका अर्थ है कि वर्ष के अंत तक हमारे पास दो करोड़ टन का बफर स्टॉक हो जाएगा। यदि हम गन्ने के उत्पादन की नीति पर डटे रहे तो अगले वर्ष यह और बढ़ता जाएगा। इसीलिए इस नीति के तहत चीनी के अधिक उत्पादन का हल नहीं ढूंढा जा सकता है।

गन्ना किसानों की समस्या का एकमात्र हल यह है कि गन्ने का उत्पादन कम किया जाए। इसके लिए जरूरी है कि सरकार द्वारा निर्धारित किए गए गन्ने के मूल्य के दामों में भारी कटौती की जाए। गन्ने का दाम कम होगा तो किसान स्वयं गन्ने का उत्पादन कम करेंगे। इससे पानी भी बचेगा, क्योंकि गन्ने के उत्पादन में पानी की खपत बहुत ज्यादा होती है।

गन्ने की एक फसल का उत्पादन करने में लगभग 20 बार पानी दिया जाता है जबकि गेहूं अथवा धान को दो या तीन बार सींचने से ही काम हो जाता है। एक और लाभ यह होगा कि सरकार द्वारा बिजली, ïउर्वरक और निर्यात पर जो सब्सिडी दी जा रही है उसकी भी बचत होगी। समस्या यह है कि इससे किसान उद्वेलित होंगे। इसका उपाय यह है कि ïउर्वरक, बिजली और निर्यात के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को सरकार सीधे किसानों के खातों में हस्तांतरित कर दे। इससे किसान को सीधे रकम मिल जाएगी और उनके लिए गन्ने के अधिक उत्पादन का लोभ समाप्त हो जाएगा।              

 
  

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