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चीनी कीमत में वृद्धि के बावजूद मुश्किल में मिलें
Date: 15 Feb 2018
Source: Business Standard
Reporter: राजेश भयानी
News ID: 29838
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ऐसा लगता है कि सरकार के चीनी आयात पर शुल्क लगाने और मिलों के बाजार में चीनी बेचने की सीमा तय करने जैसे कदम उठाने के बावजूद इस उद्योग और किसानों के लिए बुरा दौर खत्म नहीं होगा। हालांकि मिलों को चीनी की मिलने वाली कीमतों में 7 से 10 फीसदी सुधार हुआ है, लेकिन वे पहले ही उत्पादन लागत से 15 से 20 फीसदी कम दाम पर चीनी बेच रही थीं। इसका मतलब है कि उनका घाटा कम हुआ है, लेकिन गन्ना पेराई का कारोबार अभी फायदे में नहीं आया है। उद्योग के अधिकारियों और विश्लेषकों ने चीनी मिलों की नकदी आवक सुधारने के लिए सरकार से मदद की मांग की है। इससे किसानों के बकाया में बढ़ोतरी और मिलों के परिचालन घाटे को रोकने में मिलों को मदद मिलेगी। अगर चीनी मिलों को फायदा नहीं होगा तो उनके द्वारा गन्ना बेचने वाले किसानों का भुगतान नहीं होगा और मिलों की वित्तीय हालत प्रभावित होगी। इसकी वजह यह है कि मिलें चीनी उत्पादन करती रहेंगी, लेकिन चीनी बिक्री की सीमा तय किए जाने से उन्हें अतिरिक्त चीनी को भंडारित करने के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होगी। 
 
भारतीय चीनी मिल संघ (इस्मा) ने चीनी सीजन 2017-18 (अक्टूबर से सितंबर) में 261 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान जताया है। इस्मा के आंकड़े दर्शाते हैं कि 31 जनवरी तक 170 लाख टन चीनी का उत्पादन हो चुका है और फरवरी को उत्पादन के लिए पीक सीजन माना जाता है।  विश्लेषकों का उचित एवं लाभकारी मूल्य के आधार पर किसानों के बकाया का आकलन है कि यह मार्च के अंत में 200 अरब रुपये पर पहुंच जाएगा। अगर इसमें उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, उत्तराखंड जैसे राज्यों चुकाए जाने वाले राज्य परामर्शी मूल्य को भी जोड़ते हैं तो किसानों का चुकाया जाने वाला गन्ने का बकाया 270 अरब रुपये तक पहुंच सकता है। तकनीकी रूप से अगर किसानों को चुकाए जाने वाले पैसे का दो सप्ताह में भुगतान नहीं किया जाता है तो इसे एरियर कहा जाएगा। 
 
चीनी सीजन 2017-18 में चीनी का सरप्लस 10 लाख टन से अधिक अनुमानित है। केयर रेटिंग्स के सहायक निदेशक गौरव दीक्षित ने कहा, 'चालू चीनी सीजन 2017-18 और आगामी चीनी सीजन 2018-19 में चीनी का सरप्लस उत्पादन होगा। इसलिए यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है कि सभी भागीदारों के हितों की रक्षा की जाए और यह क्षेत्र मुनाफे में रहे।' उन्होंने कहा कि सरप्लस चीनी के निर्यात को प्रोत्साहन देने की जरूरत है। वर्तमान कीमतों पर 20 फीसदी निर्यात शुल्क हटाने के बावजूद भी निर्यात करना फायदेमंद नहीं है। अब भी महाराष्ट्र के निर्यातक को प्रत्येक एक किलोग्राम चीनी के निर्यात पर 9 से 10 रुपये का घाटा होता है।  
 
कुछ चीनी कंपनियां इन चुनौतियों से निपटने में सक्षम हैं, लेकिन सभी नहीं। गौरव ने कहा, 'चीनी की कीमतों पर आगे दबाव रहने के आसार हैं, इसलिए बड़ी मिलें गन्ने के बकाया का भुगतान करने में बेहतर स्थिति में रहेंगी। इसकी वजह यह है कि ऐसी चीनी मिलें अपने ऋण को काफी घटा चुकी हैं, इसलिए चालू वर्ष में उन्हें ब्याज के रूप में कम पैसा चुकाना होगा। इससे उनकी वित्तीय हालत सुदृढ़ रहेगी। कर्ज में दबी और बिना किसी डिस्टीलरी या विद्युत संयंत्र वाली अकेली चीनी मिलों के लिए बकाया चुकाना बड़ा मुश्किल होगा।'
 

वही केवल अकेले व्यक्ति नहीं हैं, जिन्होंने सरकारी उपायों का सुझाव दिया है। भारतीय चीनी मिल संघ के महानिदेशक अविनाश वर्मा ने कहा, 'मुख्य समस्या सरप्लस चीनी है, जो अगले साल आएगी। अभी इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता कि सरप्लस कितना रहेगा, लेकिन अगले सीजन की शुरुआत में बीते वर्ष का कम स्टॉक रहना बेहतर रहेगा, जिसके लिए भारत को अगले 6 महीनों में 10 से 12 लाख टन चीनी का निर्यात करने की कोशिश करनी चाहिए।'  इस्मा ने अनुमान जताया है कि इस साल 2017-18 में 10 लाख टन चीनी का सरप्लस रहेगा। वर्मा का अनुमान है कि सरप्लस चीनी के निर्यात से उद्योग को करीब 30 से 40 अरब रुपये की नकदी मिलेगी। चीनी की एक्स-मिल कीमतें 34 से 36 रुपये प्रति किलोग्राम के लाभदायक स्तर पर रखने में मदद मिलेगी और अगले सीजन की शुरुआत में पिछला स्टॉक कम बचेगा।  इस समय महाराष्ट्र में एक्स-मिल कीमत 31 रुपये और उत्तर प्रदेश में 34.50 रुपये प्रति किलोग्राम है।              

 
  

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